Sundar kand (सुंदरकाण्ड हिंदी में)
Sundar kand (सुंदरकाण्ड हिंदी में)

Sundar kand (सुंदरकाण्ड हिंदी में)

सुंदरकांड (रामचरितमानस – गोस्वामी तुलसीदास)

॥ श्री गणेशाय नमः ॥

श्रीरामचरितमानस पञ्चम सोपान

सुन्दरकाण्ड

श्लोक

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम॥ १ ॥

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥ २ ॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामाग्रगण्यम।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥ ३ ॥

जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥१॥

जब लगि आवौं सीतिहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबहिं कहँ माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥२॥

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥३॥

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एहि भाँति चलेउ हनुमाना॥४॥

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रमहारी॥५॥

दोहा

हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥१॥

जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहँ बल बुधि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्ह आइ कही तेहिं बाता॥१॥

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कै सुधि प्रभुहि सुनावौं॥२॥

तब तव बदन पैठहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥
कवनेहँ जतन देउ नहिं जाना। ग्रसिस न मोहि कहेउ हनुमाना॥३॥

जोजन भरि तिहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥४॥

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥५॥

बदन पैठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥६॥

दोहा

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुधि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥२॥

निसिचर एक सिंधु महँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥१॥

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपट कपि तुरतहिं चीन्हा॥२॥

ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥३॥

नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥४॥

उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरि पर चढ़ि लंका तेहि देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥५॥

अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकाशा॥६॥

छंद

कनक कोट बिचित्र मणि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहुबिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बारूथिन्ह को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥१॥

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गजरहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहीं बहुबिधि एक एकन्ह तजरहीं॥२॥

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहँ दिस रच्छहीं।
कहँ मिहष मानुष धेनु खर अज अज गीत निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरिन्ह त्याग गति पैहिहं सही॥३॥

दोहा

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पैसार॥३॥

मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिर नरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेस मोहि निंदरी॥१॥

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढरमनी॥२॥

पुनि संभारि उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्म कर दीन्हा। चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥३॥

बिकल होसि तैं कपि के मारे। तब जनेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥४॥

दोहा

तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥४॥

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राख कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥१॥

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिर भगवाना॥२॥

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥३॥

सयन कएँ देखा कपि तेही। मंदिर महँ न दीख बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥४॥

दोहा

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ॥५॥

लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महँ तरक करैं कपि लागा। तेहिं समय बिभीषनु जागा॥१॥

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन हिठ करहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥२॥

एहि परि कृपा राम की होई। पावइ भगति गति सुख सोई॥
निसि प्रबिसेषि राम मनु धरई। नामु जपत मंगल दिसि करई॥३॥

बिभीषनु प्रभु कीं कृपा भोरी। सयन करत जगत सब तोरी॥
एहि सन ठिठि करब मैं कैसें। सज्जन सँग भवऊ सुभ दैसें॥४॥

दोहा

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिर गुन ग्राम॥६॥

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्ह महँ जीभ बिचारी॥
तात कबहँ मोहि जान अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥१॥

तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता॥२॥

जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हिठ दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥३॥

कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहिं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥४॥

दोहा

अस मैं अधम सखा सुनु मोह पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिर गुन भरे बिलोचन नीर॥७॥

जानतहँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्वाच्य बिश्रामा॥१॥

पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिध जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ॥२॥

राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्ह राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥३॥

नर बानरहि संग कह कैसें। कही कथा भई संगति जैसें॥४॥

दोहा

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥१३॥

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयउ तात मो कहँ जलजाना॥१॥

अब कह कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥२॥

सहज बािन सेवक सुख दायक। कबहँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहँ नयन मम सीतल ताता। होइहिहं निरखि स्याम मृद गाता॥३॥

बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृद बचन बिनीता॥४॥

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। प्रभु कृपाँ भा काजु बिसेषा॥
जिन जननी मानह जयँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम के दूना॥५॥

दोहा

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥१४॥

कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहँ सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहँ कृसानू। कलिनसा सम निसि ससि भानू॥१॥

कुबलय बिपिन कुँत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥२॥

कहेहु तें कछु दुख घटु होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥३॥

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥४॥

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई॥५॥

दोहा

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु॥१५॥

जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करतें नहिं बिलंबु रघुराई॥
राम बान रबि उएँ जानकी। तम बारूथ कहँ जातुधान की॥१॥

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई॥
कछक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहिहं रघुबीरा॥२॥

निसिचर मारि तोहि लै जैहिं। तिहँ पुर नारदादि जसु गैहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना॥३॥

मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥४॥

सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥५॥

दोहा

सुनु मात साखामृग नहिं बल बुधि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु व्याल॥१६॥

मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्ह रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥१॥

अजर अमर गुननिधि सुत होहु। करहुँ बहुत रघुनायक छोहु॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥२॥

बार बार नाएस पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥३॥

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करिहं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥४॥

तेहि भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥५॥

दोहा

देखि बुधि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥१७॥

चलेउ नाइ सिर पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥१॥

नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥२॥

सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गजरउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥३॥

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तारा। ताहि निपाति महाधुनि गारा॥४॥

दोहा

कछु मारेसि कछु मदरसि कछु मिलाएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥१८॥

सुनि सुत बध लंकेंस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जिमि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥१॥

चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्ज अरु धावा॥२॥

अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेंस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मदरइ निज अंगा॥३॥

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भरे जुगल मानहँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई॥४॥

उठोरि कीन्हिस बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥५॥

दोहा

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार॥१९॥

ब्रह्मबान कपि कहँ तेहिं मारा। परतहिं बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयउ। नागपास बाँधेसि लै गयउ॥१॥

जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥२॥

कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीख कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥३॥

कर जोरें सुर दिसप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महँ गरुड़ असंका॥४॥

दोहा

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कह दुरबाद।
सुत बध सुरति कीन्ह पुनि उपजा हृदयँ बिषाद॥२०॥

कह लंकेंस कवन तैं कीसा। केहि के बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं ब्रन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही॥१॥

मारे निसिचर केहिं अपराधा। कह सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचित माया॥२॥

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥३॥

दोहा

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजु भजहिं जेहि संत॥३८॥

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेश्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥१॥

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल प्राता। वेद धरम रच्छक सुनु भाता॥२॥

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारित भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥३॥

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। विश्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥४॥

दोहा

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजु कोसलाधीस॥३९ क॥

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहँ अहित न होइ तुम्हार॥३९ ख॥

बुध पुरान श्रुति सममत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥१॥

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥२॥

एहि सन ठिठि करब मैं कैसें। सज्जन संग भवऊ सुभ दैसें॥
अस कहि कीन्हे चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥३॥

उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥४॥

सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥५॥

दोहा

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जिन खोरि॥४१॥

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयूहीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥१॥

रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥
चलेउ हरष रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं॥२॥

देखहउँ जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी रिषिनारी। दंडक कानन पावनकारी॥३॥

जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए॥
हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मैं देखहउँ तेई॥४॥

दोहा

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्ह भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकहउँ इन्ह नयनिन्ह अब जाइ॥४२॥

एहि बिध करत सरोम बिचारा। आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जान कोउ रिपु दूत बिसेषा॥१॥

ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई॥२॥

कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जान न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया॥३॥

भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीक बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥४॥

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना॥५॥

दोहा

सरनागत कहँ जे तजहिं निज अनहित अनुमान।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हान॥४३॥

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥१॥

पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजहु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दृढ़हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥२॥

निरमल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
जौं पै दृढ़हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥३॥

निसिचर मारि तोहि लै जैहिं। तिहँ पुर नारदादि जसु गैहिं॥
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥१॥

भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥
कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥२॥

सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जदपि अखिल लोक कर राऊ॥३॥

मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करihi। उर अपराध न एकु धरही॥
जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥४॥

जब तेहि कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहँ। कृपासिंधु रघुनायक जहँ॥५॥

करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई॥
रिषि अगस्त कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥६॥

दोहा

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥५७॥

लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती॥१॥

ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिह सम कामिह हरि कथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥२॥

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥३॥

उठी उदधि उर अंतर ज्वाला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥
मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥४॥

कनक थार भरि मणि गन नाना। बिधि रूप आयउ तजि माना॥

दोहा

काटेहिं पइ कदली फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥५८॥

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥१॥

प्रभु प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथन्ह गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥२॥

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥३॥

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उत्तरहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु आज्ञा अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥४॥

दोहा

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरैं कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ॥५९॥

नाथ नील नल कपि दोउ भाई। लरिकाईं रिषि आसिष पाई।
तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे। तिरहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥१॥

मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहँ गाइअ॥२॥

एहँ सर मम उतर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रन धीरा॥३॥

देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनििध भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥४॥

छंद

निज भवन गवनेउ सिंधु प्रेरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गाउअऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥

दोहा

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥६०॥

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः।

सुंदरकाण्ड समाप्त

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